इलाहाबाद हाईकोर्ट ने हाल ही में एक अहम फैसले में स्पष्ट किया कि पेंशन कम्युटेशन (Commutation of Pension) कोई कानूनी अधिकार नहीं है, बल्कि एक वैकल्पिक सुविधा है। अदालत ने उत्तर प्रदेश सरकार की उस नीति को चुनौती देने वाली याचिकाओं को खारिज कर दिया, जिसमें सेवानिवृत्त कर्मचारियों की पेंशन से 15 वर्षों तक की कटौती जारी रखने का प्रावधान है।
क्या है मामला?
उत्तर प्रदेश सरकार के उच्च शिक्षा विभाग के कुछ सेवानिवृत्त कर्मचारियों ने उत्तर प्रदेश सिविल पेंशन समायोजन नियम, 1941 के तहत अपनी पेंशन का 40% हिस्सा एकमुश्त राशि के रूप में लिया था। इस योजना के अनुसार, 40% एकमुश्त लेने पर पेंशन से हर महिना कटौती होती है जो कि 15 साल तक चलती है।
याचिकाकर्ताओं का तर्क था कि उनके मूलधन की वसूली 10-12 वर्षों में ही पूरी हो गई है, फिर भी सरकार 15 वर्षों तक कटौती जारी रख रही है। उन्होंने इसे अनुचित बताते हुए कोर्ट में चुनौती दी थी।
कोर्ट में किन-किन याचिकाओं पर सुनवाई हुई?
इस मुद्दे पर इलाहाबाद हाईकोर्ट में कई याचिकाएँ दाखिल की गईं, जिनमें प्रमुख थीं:
- राधेश्याम शुक्ल व अन्य बनाम उत्तर प्रदेश सरकार (WRIT – A No. 19031/2024)
- अवधेश कुमार व अन्य बनाम उत्तर प्रदेश सरकार (WRIT – A No. 1169/2025)
- डॉ. कैलाश नारायण त्रिगुणायत बनाम उत्तर प्रदेश सरकार (WRIT – A No. 1207/2025)
- हकीम सिंह वर्मा व अन्य बनाम उत्तर प्रदेश सरकार (WRIT – A No. 1378/2025)
इन मामलों में याचिकाकर्ताओं की ओर से नवल किशोर मिश्रा, प्रवीन तिवारी, भगवान दत्त पांडेय, राजेश त्रिपाठी और विजय कुमार राय जैसे वरिष्ठ अधिवक्ताओं ने पैरवी की, जबकि राज्य सरकार की ओर से अपर मुख्य स्थायी अधिवक्ता अरुण कुमार सिंह ने अपना पक्ष रखा।
हाईकोर्ट का फैसला: पेंशन कॉम्युटेशन बहाली की शर्तें बाध्यकारी
न्यायमूर्ति सौरभ श्याम शमशेरी की पीठ ने स्पष्ट किया कि पेंशन कॉम्युटेशन कराना एक विकल्प है, यह कर्मचारी की इच्छा के ऊपर है ऐसे में सभी शर्ते पहले से ही कर्मचारी को मालूम होती है। यदि किसी कर्मचारी ने इसे स्वेच्छा से स्वीकार किया है, तो बाद में इसकी शर्तों पर सवाल नहीं उठाया जा सकता।
कोर्ट ने कहा:
“जब कोई पेंशनभोगी पेंशन से कॉम्युटेशन योजना का लाभ लेता है, तो उसे इसकी शर्तों का पालन करना होगा। कटौती की अवधि और प्रक्रिया नियमों में पहले से निर्धारित होती है, जिसे कर्मचारी स्वीकार कर चुके होते हैं।”
इस फैसले का क्या असर पड़ेगा?
- भविष्य में पेंशन कॉम्युटेशन कटौती की अवधि को कम करने के लिए चुनौती देने के मामलों की संभावना कम हो जाएगी।
- सरकार के नियमों का पालन अनिवार्य होगा, और कर्मचारी इन शर्तों को बदलने की माँग नहीं कर सकेंगे।
- इस फैसले से अन्य राज्यों में भी पेंशन समायोजन से जुड़े मामलों में नजीर पेश की जा सकती है।
निष्कर्ष
इलाहाबाद हाईकोर्ट का यह फैसला पेंशनभोगियों के लिए एक अहम संदेश है कि समायोजन की शर्तों को स्वीकार करने के बाद उन्हें चुनौती नहीं दी जा सकती। पेंशन समायोजन कोई मौलिक अधिकार नहीं, बल्कि एक स्वैच्छिक योजना है, जिसे कर्मचारी अपनी इच्छा से चुनते हैं। इसलिए, भविष्य में इस तरह की याचिकाओं पर अदालतें इसी मिसाल को अपनाकर निर्णय ले सकती हैं।